हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , जामिया मदर्रेसीन हौज़ा एल्मिया क़ुम के सरबराह आयतुल्लाह सय्यद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने कहा है कि सोशल मीडिया में फैलाए जाने वाले शुबहात और नफ़रत अंगेज़ी का सबसे बेहतर मुक़ाबला यह है कि अहले-बैत अलैहिमुस्सलाम की शिक्षाओं को रोज़मर्रा की भाषा में आम किया जाए और मज़ारात-ए-मुक़द्दसा की मानवीय क्षमताओं से भरपूर फ़ायदा उठाया जाए। उनके अनुसार, मज़ारात-ए-मुक़द्दसा के साथ ज़ायर का सीधा रूहानी और भावनात्मक सम्बन्ध, ईमान के स्थायित्व और शुबहात के निवारण का सबसे मज़बूत साधन है।
विवरण के अनुसार, आयतुल्लाह सय्यद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने मस्जिद जम्करान में आयोजित ईरान के मज़ारात-ए-मुक़द्दसा की आठवीं बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि मुक़द्दस स्थानों में सेवा करना एक महान सम्मान है, जिसे इख़्लास (ईमानदारी) और विनम्रता के साथ अंजाम दिया जाना चाहिए। ख़ादिमों की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वे ज़ायरीन-ए-अहले-बैत की सेवा और याद-ए-ख़ुदा व ज़िक्र-ए-मासूमीन को जीवित रखें।
उन्होंने कहा कि मुतवल्लियान और मुंतज़िमीन (आयोजकों) की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ इंतज़ामी मामलों तक सीमित नहीं है, बल्कि उनका मूल मिशन यह है कि अहले-बैत की शिक्षाओं को प्रभावी ढंग से आम लोगों तक पहुँचाएँ और ऐसा माहौल प्रदान करें जिससे ज़ायरीन मारिफ़त और जागरूकता के साथ ज़ियारत से मुस्तफ़ीद हों। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह फ़रीज़ा महज़ ईरान तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया भर के शिया मुसलमानों के लिए है।
आयतुल्लाह हुसैनी बुशहरी ने इमाम रज़ा (अ.स.) और इमाम सादिक़ (अ.स.) से मन्कूल कई हदीसें बयान करते हुए कहा कि ज़ियारत की क़ुबूलियत का महत्वपूर्ण रुक्न मारिफ़त (ज्ञान) है, और यह ख़ादिमों की ज़िम्मेदारी है कि वे हरम के माहौल को सक़ाफ़ती और मानवी लिहाज़ से ऐसा बनाएँ कि यह अनुभव ज़ायिर की रूहानी तर्बियत (शिक्षा), निजात (मुक्ति) और अख़्लाक़ी कमाल का सबब बने।
उन्होंने हरम के आसपास के इंतेज़ाम पर भी ज़ोर देते हुए कहा कि कभी-कभी बाहरी माहौल, हरम की हुरमत और तक़द्दुस के साथ हम आहंग नहीं होता। इसलिए ज़रूरी है कि आंतरिक और बाहरी फ़िज़ा में सामंजस्य स्थापित किया जाए, ताकि ज़ायिरीन को प्रवेश करने से लेकर बाहर निकलने तक सुकून, इहतराम और रूहानियत का एहसास हो।
मज्लिस-ए-ख़ुबरगान-ए-रहबरी के नायब सदर (उपाध्यक्ष) ने नस्ल-ए-नौ (नई पीढ़ी) को ज़ियारत-बा-मारिफ़त की तर्बियत का मर्कज़ (केंद्र) बताते हुए कहा कि नौजवानों के लिए ऐसे मंसूबे तरतीब दिए जाएँ जिनसे वे आदाब-ए-ज़ियारत, वज़ू, नमाज़ और अख़्लाक़ी फ़ज़ाइल से सही मायनों में आशना (परिचित) हों और दिलों में अहले-बैत की मुहब्बत और वाबस्तगी मज़बूत हो।
उन्होंने सोशल मीडिया में बढ़ते शुबहात और प्रोपेगंडे पर भी गुफ़्तगू करते हुए कहा कि इन हमलों का बेहतरीन जवाब यह है कि मारिफ़-ए-अहले-बैत को नई और समझने योग्य भाषा में दुनिया तक पहुँचाया जाए और मज़ारात-ए-मुक़द्दसा को अक़ीदे की तक़वीयत (मज़बूती) के मराकज़ (केंद्रों) के तौर पर फ़आल किया जाए।
अपने ख़िताब के इख़तिताम (समापन) पर उन्होंने रसूल-ए-अकरम (स.अ.व.व.) की रिवायत से इस्तिशहाद करते हुए कहा कि जो शख़्स आइम्मा-ए-अतहार (अ.स.) और उनकी औलाद के मज़ारात को आबाद रखता है, वह दर हक़ीक़त इंसानों की निजात और सअदत में बड़ा हिस्सा रखता है, और यह सेवा महज़ दुनवी नहीं बल्कि अज़ीम आख़िरती अज्र की भी हामिल है।
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